बीजेपी ने पश्चिम बंगाल में अपनी जड़ें जमाने के लिए अब तक कई तरह के सियासी प्रयोग किए हैं। पार्टी ने कभी आक्रामक हिंदुत्व का रास्ता अपनाया तो कभी नरम रुख अपनाया। राज्य की राजनीति में करीब 30% मुस्लिम वोट निर्णायक भूमिका निभाते हैं। लोकसभा की 42 में से 10 और विधानसभा की 294 में से लगभग 80 सीटों पर मुस्लिम आबादी 45% से ज्यादा है। पिछले कुछ चुनावों से यह वोट बैंक तृणमूल कांग्रेस के साथ रहा है। बीजेपी ने आक्रामक हिंदुत्व की राजनीति से ध्रुवीकरण करने की कोशिश की। 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्हें कुछ हद तक कामयाबी मिली भी, लेकिन इसके बाद हुए विधानसभा चुनाव और फिर 2024 के आम चुनाव में पार्टी को नुकसान उठाना पड़ा।इन नतीजों के बाद पार्टी के अंदरूनी हलकों में यह अहसास हुआ कि इतनी बड़ी तादाद में मुस्लिम वोटों को नजरअंदाज करके चुनावी जीत हासिल करना मुश्किल है। इसके बाद बीजेपी ने पश्चिम बंगाल में मुस्लिमों के बीच अपनी छवि सुधारने की कोशिशें भी शुरू कीं। पंचायत चुनावों में पार्टी ने 852 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया, जो राज्य के चुनावी इतिहास में अभूतपूर्व था। बीजेपी ने पहले कभी मुस्लिमों को इतनी अहमियत नहीं दी थी। पिछले कुछ सालों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) ने भी बातचीत के जरिए यह धारणा बदलने की कोशिश की है कि वे मुस्लिम विरोधी संगठन हैं। हालांकि, इन प्रयासों का अब तक बहुत ज्यादा फायदा नहीं मिला है।
इस बार बीजेपी पश्चिम बंगाल के चुनाव में हिंदुत्व, राष्ट्रवाद और बंगाल की अस्मिता के मिश्रण के साथ उतरने की योजना बना रही है। पार्टी का मानना है कि राज्य में हिंदुत्व की राजनीति की एक सीमा है और इसका लाभ एक हद तक ही उठाया जा सकता है, जो उन्हें मिल भी रहा है। अब ममता बनर्जी को हराने के लिए पार्टी को इस सीमा से आगे बढ़ना होगा। ममता बनर्जी अब तक बीजेपी के हिंदुत्व कार्ड का मुकाबला बंगाली अस्मिता से करती आई हैं। बीजेपी की एक बड़ी कमजोरी यह रही है कि वह खुद को बंगाल की एक स्वाभाविक पार्टी के तौर पर पेश नहीं कर पाई है। दिल्ली से बंगाल की राजनीति को जोड़ने की कोशिशें भी इसका एक कारण रही हैं।
इसी को देखते हुए पार्टी ने अपनी रणनीति बदली है। 'वंदे मातरम' डिबेट इसी नई सियासी कोशिश का एक हिस्सा है। 'वंदे मातरम' और 'आनंद मठ' जैसे मुद्दे बंगाल की अस्मिता से जुड़े हुए हैं। बीजेपी यह बताने की कोशिश कर रही है कि वह बंगाल की संस्कृति की रक्षा करती है, जबकि ममता बनर्जी ने तुष्टिकरण की राजनीति में राज्य के गौरव से समझौता किया है। इस नैरेटिव के साथ बीजेपी कोलकाता और उसके आसपास के इलाकों में आक्रामक चुनाव प्रचार करना चाहती है, जो ममता बनर्जी के मजबूत गढ़ माने जाते हैं।
दिलचस्प बात यह है कि इन इलाकों में हिंदू आबादी भी अच्छी खासी संख्या में है। लेकिन, बीजेपी के लिए इस मैदान में ममता बनर्जी को हराना आसान नहीं होगा। पार्टी के सामने सबसे बड़ी चुनौती राज्य स्तर पर ममता बनर्जी के मुकाबले एक मजबूत नेतृत्व खड़ा करना है। साथ ही, बीजेपी को यह भी साबित करना होगा कि वह सिर्फ दिल्ली से नहीं, बल्कि बंगाल की मिट्टी से भी समान रूप से जुड़ी हुई है। ऐसी ही चुनौती बीजेपी को तमिलनाडु जैसे राज्यों में भी आती है, जहां पार्टी इसी तरह की रणनीति अपना सकती है।
बीजेपी का यह 'मेगा मिक्स' दांव पश्चिम बंगाल की राजनीति में एक नया मोड़ ला सकता है। पार्टी का मानना है कि हिंदुत्व के साथ-साथ बंगाली अस्मिता और राष्ट्रवाद का मिश्रण उन्हें ममता बनर्जी के गढ़ में सेंध लगाने में मदद करेगा। 'वंदे मातरम' जैसे मुद्दे को उठाकर बीजेपी यह संदेश देना चाहती है कि वह बंगाल की संस्कृति और गौरव का सम्मान करती है। यह रणनीति उन मतदाताओं को लुभाने की कोशिश है जो खुद को बंगाली संस्कृति से गहराई से जुड़ा हुआ मानते हैं।
हालांकि, यह देखना बाकी है कि क्या यह रणनीति बीजेपी को पश्चिम बंगाल में वह सफलता दिला पाएगी जिसका वह लंबे समय से इंतजार कर रही है। ममता बनर्जी का अपना एक मजबूत वोट बैंक है और उनकी पकड़ राज्य की राजनीति में गहरी है। बीजेपी को न केवल अपनी रणनीति को प्रभावी ढंग से लागू करना होगा, बल्कि राज्य स्तर पर एक मजबूत नेतृत्व भी पेश करना होगा जो ममता बनर्जी के करिश्मे का मुकाबला कर सके।
बीजेपी के लिए यह चुनाव सिर्फ सत्ता हासिल करने का सवाल नहीं है, बल्कि पश्चिम बंगाल में अपनी राजनीतिक पहचान को मजबूत करने का भी अवसर है। अगर वे सफल होते हैं, तो यह न केवल पश्चिम बंगाल की राजनीति को बदलेगा, बल्कि पूरे देश में बीजेपी के लिए एक नया रास्ता खोल सकता है। लेकिन अगर वे असफल होते हैं, तो उन्हें अपनी रणनीति पर फिर से विचार करना होगा और शायद एक बार फिर नए सिरे से शुरुआत करनी होगी। यह देखना दिलचस्प होगा कि यह 'मेगा मिक्स' दांव कितना कारगर साबित होता है।

